वे तपती धूप में जलती सड़क को
नाप लेना चाहते हैं
वे पगडंडी पर, मिट्टी में ,
गिट्टी पर ,रेल की फिश प्लेट्स पर और
टहकते कोलतार पर तपते सिहरते
डोलते चलते
और कभी कभी दौड़ते कदम
इस खुशी में हर दर्द भूल चुके हैं
कि वे जल्द ही अपने मुलुक
अपने गाँव में होंगे
माँ जैसी गाँव की माटी
जिसने रोजी रोजगार भले न दिया
लेकिन प्यार बहुत दिया है
और दुआर पर की नीम भी तो अगोरती है
उसके नीचे केतना बढ़िया बयार लगता है
हाली हाली चलते हैं
ए सुनु रे ! हम तो चल रहे हैं
ई सांस क्यों रुक रही है
रुकु रे! अब तो नगिचा गए हैं
-बस दुइये दिन अउर
फिर नीम के तरे खटिया डार के
आराम से सुतियेगा
उठ क्यों नहीं रहे हैं
उठिए न बेलास के बाबू!!!!
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