अँधेरा आज कुछ ज्यादा घना है।

चिरागों!  रौशनी देना मना है।।

अमावस अब कई दिन जागती है

किधर है चाँद ये क्या बचपना है।।

ये बादल किसलिए छाये हुए हैं

अगर खेतों को यूँ ही सूखना है।।

अगर बरसो तो तुम हर बार आओ

मगर तुमको तो केवल गरजना है।।

हक़ीक़त हम तुम्हारी क्या बताएं

तुम्हारे पास कैसा आईना है।।

सुरेश साहनी, कानपुर

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