हम भी वहीं करें जो मेरे यार कर रहे।
ना राहजन हुए ना कभी राहबर रहे।।
जो भी मिला नसीब से तस्लीम कर लिया
ना मुतमईन थे ना कभी बेसबर रहे।।
इस इश्क़-ए-नामुराद ने हस्ती समेट दी
बदनाम ना हुए ना कभी नामवर रहे।।
ये चार दिन की ज़ीस्त भी कुछ इस तरह कटी
ना उनके घर गए ना कभी अपने घर रहे।।
हम इस शहर से उस शहर किसकी तलाश में
अहले शहर थे फिर भी गरीब उल शहर रहे।।
मंज़िल न मरहला न ठिकाना कोई मिला
ख़ानाबदोश जैसे फिरे दरबदर रहे।।
दिन इंतज़ार ले गया कुछ हिज़्र में गए
कैसे कहें वो साथ मेरे उम्र भर रहे।।
यूँ भी कलम रही है फ़कीरी मिज़ाज़ की
हम बाबहर रहे न कभी बेबहर रहे।।
सुरेश साहनी, कानपुर
Comments
Post a Comment