मीलों फैली तन्हाई का
ख़ाक शहर आबाद करें हम।
बंजारी यादों को लेकर
कैसे घर आबाद करें हम।।
तुम थे जब तो केवल तुम थे
दिल में कोई और नहीं था
तुम्हें दिया था दिल पर लेकिन
कोई डर या जोर नहीं था
एक तुम्हें खोने का डर था
अब क्या डर आबाद करें हम।।
घर घर वालों से होता है
खुशियां हैं रिश्ते नाते है
वरना खुशियों को तो छोड़ो
ग़म भी कम आते जाते हैं
घर क्या गिरता हुआ खण्डहर
किस दम पर आबाद करें हम।।
हरी भरी शाखों पर पंछी
सुबह शाम फेरा करते हैं
दूर देश से आ आ कर खग
रात वहीं डेरा करते हैं
जब बहार जा चुकी शज़र से
क्या कोटर आबाद करें हम।।
सुरेश साहनी अदीब
कानपुर
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