मिट्टी के घर उनके लिए मकान नहीं।

अपनी आवाज़ों को मिलते कान नहीं।।

हर बारिश में अपने घर बह जाते हैं

फिर समेटते हैं घर यह आसान नही।।

जन के भक्षक जन सत्ता में जनमत से

सच पूछो तो हम भी कम हैरान नहीं।। 

कोई पीड़ा नहीं हमें पीड़ायें हैं

हम सब हैं पर खबरों के उनवान नहीं।।

जब अपनी पीड़ाओं को हम गाते हैं

वो कहते हैं इस कविता में जान नहीं।।

पांच साल में  दो दिन तो आ जाते हैं

ये भी उनके हमपर कम एहसान नहीं।।

बस्ती की बेटियां हमारी चिंता हैं

नेता जी हम इतने भी अनजान नहीं।।

सुरेशसाहनी, कानपुर

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