अपरिभाषित
देखो ना ये वही जगह है
जहाँ मिला करते थे हम तुम
मगर अब यहाँ बाग नहीं है
आमों के वह पेड़ नहीं हैं
महुवे की वह गन्ध नहीं है
आज यहां अपना मकान है
कितना ऊँचा कितना प्यारा
अगर प्रेम हो रह सकता है
जिसमें अपना कुनबा सारा
यहीं कहीं पर हम दोनो ने
एक दूसरे को चाहा था
तुमने अपनी गुडिया को जब
मेरे गुड्डे से ब्याहा था
तुमको शायद स्मृत होगा
इसी जगह पर खुश होते थे
सींको के हम महल बनाकर
और आज इस रंगमहल में
वही नहीं है
सूनी सूनी दीवारें हैं
खुशी नहीं है
वही नहीं है जिसको पाकर
हम अनुबन्धित हो सकते थे
जो सपने हमने देखे थे
वह सपने सच हो सकते थे
आज तुम्हारी आँखों मे कोई विस्मय है
लोक-लाज से, शील-धर्म से प्रेरित भय है
मै अवाक! होकर, औचक यह सोच रहा हूं
तुम तुम हो या कोई और इसमे संशय है
लिंग-भेद तो सम्पूरक है,आवश्यक है
सत है, चित है, सदानन्द है
सहज योग है, स्वयम सृष्टि है
बचपन में हम अनावृत ही
साथ पले है, साथ बढे़ है
और आज परिधान सुशोभित
देह-यष्टि है हम दोनो की
पर समाज ने अपने वैचारिक स्तर से
नग्न सत्य की किसी क्रिया को
सोच लिया है
जो शाश्वत है,ईस्वरीय है
उसे अनैतिक मान लिया है
आओ हम यह छद्म आवरण करे तिरोहित
रुढि-रीतियों की जंजीरों को पिघला दें
जाति- भेद के बंधन खोलें,मुक्त सांस लें
प्रकृति प्रेम-आधार विश्व यह बात जान ले
बहुत कठिन है हरा-भरा मैदान बनाना
महकाना महुवे आमों के पेड़ लगाना
अब जाकर यह पता चला है बहुत सरल
नियमों से बद्धित शहर बसाना
हृदय हृदय के मध्य एक दीवार उठाना
जहाँ मिला करते थे हम तुम
मगर अब यहाँ बाग नहीं है
आमों के वह पेड़ नहीं हैं
महुवे की वह गन्ध नहीं है
आज यहां अपना मकान है
कितना ऊँचा कितना प्यारा
अगर प्रेम हो रह सकता है
जिसमें अपना कुनबा सारा
यहीं कहीं पर हम दोनो ने
एक दूसरे को चाहा था
तुमने अपनी गुडिया को जब
मेरे गुड्डे से ब्याहा था
तुमको शायद स्मृत होगा
इसी जगह पर खुश होते थे
सींको के हम महल बनाकर
और आज इस रंगमहल में
वही नहीं है
सूनी सूनी दीवारें हैं
खुशी नहीं है
वही नहीं है जिसको पाकर
हम अनुबन्धित हो सकते थे
जो सपने हमने देखे थे
वह सपने सच हो सकते थे
आज तुम्हारी आँखों मे कोई विस्मय है
लोक-लाज से, शील-धर्म से प्रेरित भय है
मै अवाक! होकर, औचक यह सोच रहा हूं
तुम तुम हो या कोई और इसमे संशय है
लिंग-भेद तो सम्पूरक है,आवश्यक है
सत है, चित है, सदानन्द है
सहज योग है, स्वयम सृष्टि है
बचपन में हम अनावृत ही
साथ पले है, साथ बढे़ है
और आज परिधान सुशोभित
देह-यष्टि है हम दोनो की
पर समाज ने अपने वैचारिक स्तर से
नग्न सत्य की किसी क्रिया को
सोच लिया है
जो शाश्वत है,ईस्वरीय है
उसे अनैतिक मान लिया है
आओ हम यह छद्म आवरण करे तिरोहित
रुढि-रीतियों की जंजीरों को पिघला दें
जाति- भेद के बंधन खोलें,मुक्त सांस लें
प्रकृति प्रेम-आधार विश्व यह बात जान ले
बहुत कठिन है हरा-भरा मैदान बनाना
महकाना महुवे आमों के पेड़ लगाना
अब जाकर यह पता चला है बहुत सरल
नियमों से बद्धित शहर बसाना
हृदय हृदय के मध्य एक दीवार उठाना
आओ हम यह छद्म आवरण करे तिरोहित
ReplyDeleteरुढि-रीतियों की जंजीरों को पिघला दें
जाति- भेद के बंधन खोलें,मुक्त सांस लें
प्रकृति प्रेम-आधार विश्व यह बात जान ले
सार्थक पक्तियां बहुत अच्छी हैं। वसुधैव कुटुम्बकम से ही चलना है। मेरे ब्लोग पर भी नजर घुमाएं।
भावात्मक पंक्तिया. सुन्दर दृश्य चित्रण. ब्लॉगजगत में स्वागत है आपका.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया ...स्वागत है...
ReplyDeleteसुन्दर यादें,सुन्दर भावनाएं,सुन्दर कविता,पर ----- शाश्वत व ईश्वरीय को कौन अनैतिक मानता है??? जो शारीरिक,चिकित्सकीय,धार्मिक,कानूनी व सहज़ सामाज़िक द्रष्टि से सही नहीं,अलाभकारी व हानिकारक है उसीको अनैतिक माना जाता है, और यह युगों के अनुभव से ही जाना जा सकता है, चार दिन के ग्यान से नहीं ।
ReplyDeletesir
ReplyDeleteits, your welcome. I agry completely
with you.Morality can not define so
easily. I will discuse it later.
thanks.
Suresh Sahani
हुज़ूर आपका भी एहतिराम करता चलूं.........
ReplyDeleteइधर से गुज़रा था, सोचा, सलाम करता चलूं....
यह आपका बड़प्पन है|मेरी रचनाएँ मेरे कल्पना लोक में जीते रहने का दुष्फल हैं|अतः इन्हें स्तरीय मानने का कोई कारण नहीं दिखता|
Deletejandar,shandar,damdar.narayan narayan
ReplyDeleteमै कितना सौभाग्यशाली हूँ जो आप जैसे अग्रज का वरदहस्त मुझे प्राप्त है, आपकी रचना की सराहना मै नही कर पाउँगा...क्यों कि, मै स्वयं को इस काबिल नही मानता.....किंतु अग्रज आप जो भी लिखते हो......बेमिसाल लिखते हो। :)
ReplyDeleteयह आपका बड़प्पन है|मेरी रचनाएँ मेरे कल्पना लोक में जीते रहने का दुष्फल हैं|अतः इन्हें स्तरीय मानने का कोई कारण नहीं दिखता|
Deleteयह आपका बड़प्पन है|मेरी रचनाएँ मेरे कल्पना लोक में जीते रहने का दुष्फल हैं|अतः इन्हें स्तरीय मानने का कोई कारण नहीं दिखता|
ReplyDeleteयह आपका बड़प्पन है|मेरी रचनाएँ मेरे कल्पना लोक में जीते रहने का दुष्फल हैं|अतः इन्हें स्तरीय मानने का कोई कारण नहीं दिखता|
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