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Showing posts from April, 2024
 हम मुहब्बत का ग़म मनाते क्या। अपने दिल की हँसी उड़ाते क्या।। ख़ुद को हम किसलिये बदल लेते आप आदत से बाज आते क्या।। लाद कर ग़म कहाँ कहाँ फिरते उम्र भर बोझ ही उठाते क्या।। ख़ैर है  मयकदा तलाश लिया आप से कैफ़ इतना पाते क्या।। जबकि साकी ने ज़िन्दगी दे दी फिर किसी और को बुलाते क्या।। यूँ भी जलवे ज़हां में बिखरे हैं इक सहारे पे मर न जाते क्या।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 यार कुछ इस तरह क़रीब रहा। गो कि मैं ही मेरा रक़ीब रहा।। शुक्र है ग़म तो  मिल गए उसके कैसे कह दूं मैं बदनसीब रहा।। इश्क़ होता नहीं अयाँ कैसे यार ही फितरतन ख़तीब रहा।। दिल मे था और दुश्मने- जॉ  भी मेरा क़ातिल मेरा तबीब रहा।। उसके हिस्से में पालकी तय थी मेरे हिस्से मेरा सलीब रहा।। हश्र के रोज लूट गया होता पर मेहरबां मेरा हसीब रहा।। लुत्फ़-ए-मुन्तज़िर न समझोगे साहनी सच मे खुशनसीब रहा।। रक़ीब/प्रतिस्पर्धी अयाँ/प्रकट फितरतन/आदत से ख़तीब/प्रचारक, ख़ुत्बा करने वाला,  तबीब/चिकित्सक हश्र/निर्णय का दिन, परिणाम हसीब/हिसाब रखने वाला, नबी लुत्फ़/आनंद मुन्तज़िर/इंतज़ार या प्रतीक्षा करने वाला सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 एगो मित्र के दुकान कस्बा में बावे ,एकदम्म रोडवे से सटल ।मित्र के छोट भाई छोटू  बैठेलन । नाम से छोटू बाकिर आदत से बम्मड़। एक हाली  गौंवे के एगो काका लगिहन बाछी लिहले जात रहुवन ।  छोटूवा बोललस ,काका सकराहे केने हो ? काका  कहुवन ,पाल खईले बिया भारी करे ले जात बानी ।  बात आईल गईल हो गईल ।  एक दिन काका काकी के साथै जात रहुवन ।  छोटुवा पूछता ,ए काका आजू नाही बताईब केने जात बानीं ? काका लाठी तान के खदेर लिहलन ।
 कभी कभी लिखते लिखते मैं थकने लगता हूँ तुम भी पढ़ते पढ़ते मुझ को ऊब गये हो ना। अकथ कहानी कहते कहते सोने लगता हूँ तुम भी मुझको सुनते सुनते ऊँघ रहे हो ना।। तुम्हें याद करते करते मैं रोने लगता हूँ तुम मेरे इस पागलपन पर हँसते होंगे ना।। उन गलियों में आते जाते ठिठका करता हूँ पर तुम अनदेखा कर आगे बढ़ जाते हो ना।। मैं तेरी यादों में जागा जागा रहता हूँ तुम  दुनियादारी से बेसुध सो जाते हो ना।।
 काहे की इंसानियत काहे का कानून। बुलडोजर से हो रहा लोकतंत्र का खून।। लोकतन्त्र का खून खेलते सत्ताधारी। मजहब मजहब खेल रहे हैं अत्याचारी।। पक्षपात से रहित अतिक्रमण को सब ढाहे ऐसा  हो यदि न्याय मनुजता रोये काहे।।
 एक तो कविताई का रोग ऊपर से चार मित्रों की वाह वाह । पूरी तरह बिगड़ने के लिए इतना बहुत है। जहीर देहलवी कहते हैं कि - ",कुछ तो होते हैं मुहब्बत में जुनू के आसार और कुछ लोग भी दीवाना बना देते हैं।।" मैं संकोच में पड़ जाता हूं जब कुछ युवा कवि मुझे अपना प्रेरणा स्रोत कहने लगते हैं।ऐसे में मुझे लगता है कि उन सभी कवि मित्रों को अपनी वास्तविक स्थिति से अवगत कराया जाए। और यह उचित भी है क्योंकि मैं काव्यकला से कत्तई अनभिज्ञ हूं। यमाताराजभानसलगा और रुकनोबहर के लगभग सभी नियम कायदों से अपरिचित।मुझे लगता है कि मेरे सभी युवा मित्रों को अपने अपने शहर/तहसील के उन वरिष्ठ कवियों का सानिध्य प्राप्त करना चाहिए जिन्हें प्राचीन और अर्वाचीन काव्य साहित्य की समझ हो अथवा जो कविता के व्याकरण से भली भांति परिचित हों।  ये और बात कि आजकल स्वनामधन्य गुरुओं की बाढ़ सी आयी हुई है। एक दिन शहर की एक प्रतिष्ठित गोष्ठी में  एक सज्जन मिलें। वरिष्ठता के नाते मैंने उन्हें प्रणाम भी किया। वैसे मैं सभी को यथोचित सम्मान देता हूँ। और अपनी कोशिश भर पहले अभिवादन करता हूँ।   तो मैंने जैसे ही उन्हें प्रणाम किया उन्होंने कह
 वफ़ा की राह वाले ही मिले हैं। हमें परवाह वाले ही मिले हैं।। जहां मिट्टी खंगाली है बशर ने वहाँ अल्लाह वाले ही मिले हैं।। कहाँ मिलते हैं सच्चे दीन वाले हमें तनख्वाह वाले ही मिले हैं।। ये दो अक्षर बचाने को ग़मों से सहारे काह वाले ही मिले हैं।। कहाँ मिलते हैं अब वो पीरो- मुर्शिद फ़क़त दरगाह वाले ही मिले हैं।। ख़ुदा वाले कहाँ दरवेश हैं अब गदाई शाह वाले ही मिले हैं।। यही हासिल है अपने साहनी का सफ़र जाँकाह वाले ही मिले हैं।। काह- तिनका दरवेश- संत ,फकीर गदाई-  फकीर जाँकाह- जानलेवा , भयावह सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 वो पीपल का पेड़ देखे हैं? मझौली चौराहे पर जिसकी छाँव तले जानवर और आदमी कोई भी आता जाता यात्री, थके हारे मज़दूर और किसान पनघट से लौटती पनिहारिने और गाँव के बच्चे भी आराम कर लेते हैं और तो और  उसी की छाँव में मैंने देखा है जुम्मन चाचा को नमाज़ पढ़ते हुए जिस की जड़ों में रखे शिव बाबा पर राम लग्गन पंडित जी  नित्य जल चढ़ा कर  परिक्रमा करते मिलते हैं। मैंने देखा है रग्घू चमार  वहीँ सुहताता है और जब राम अचरज बाबा बताते हैं क्षिति जल पावक गगन समीरा पांच तत्व मिलि रचत शरीरा।। तब वह बड़े भाव से   बरम बाबा को हाथ जोड़ कर परनाम करता है। वैसे तो किसिम किसिम की चिरई उप्पर बैठती हैं घोंसला बनायी हैं लेकिन उ कौवा बड़ा बदमाश है बाबा पर छिड़क दिया था रग्घू डरते डरते पोछे थे।
 वो किसी और के ख़याल में था ये मुलाक़ात  वस्ल  तो ना हुई ।।
 यार इस इश्क़ में मिला क्या है। ये कहो जेब मे बचा क्या है।। रात थाने में जम के टूट गई इश्क़ तशरीफ़ के सिवा क्या है।। तुम तो कहते हो कोई बात नहीं कुछ नहीं है तो फिर गिला क्या है।। उसने खाना ख़राब करके कहा मोहतरम खाने में बना क्या है।। हम हैं ख़ामोश कुछ न होने से हर तरफ शोर है हुआ क्या है।।
 ख़ुदा भी डरता है  इंसान की इस खूबी से  वो जिसे चाह ले  भगवान बना देता है।।सुरेश साहनी
 जब कभी भी यक़ीन पर लिखना। कुछ न कुछ आस्तीन पर लिखना।। आज धोखा फरेब मज़हब है क्या किसी और दीन पर लिखना।। आसमां के ख़ुदा से क्या मतलब तुम जो लिखना ज़मीन पर लिखना।। जो भी आता है भूल जाओगे छोड़ दो उस हसीन पर लिखना।। खुर्दबीनों ने ज़िन्दगी दी है व्यर्थ था दूरबीन पर लिखना।। जब कलम थामना तो याद रहे क़ाफ़ लिखना तो सीन पर लिखना।। साँप से भी गिरा मैं समझूंगा तुम ने चाहा जो बीन पर लिखना।। सुरेश साहनी, कानपुर
 कौन मुहब्बत के अफ़साने लिखता है। नफ़रत है दुनिया के माने लिखता है।। खुशियां जैसे दो कौड़ी की होती हैं वो ग़म को अनमोल ख़ज़ाने लिखता है।। वीरानों को ग़म की महफ़िल कहता है महफ़िल को ग़म के वीराने कहता है।। साथ रक़ीबों के वो मेरी तुर्बत पर गीत वफ़ा के मेरे साने लिखता है।। यार मेरे शायर को कोई समझाओ जब देखो दुनिया पर ताने लिखता है।। सुरेश साहनी, कानपुर
 कई पटल जब  लाइव पाठ कराते हैं। फोटू कवि संग दस के अउर लगाते हैं।। पर जब लाइव आता है कवि पाठन हित क्या वे दस भी श्रोता बनकर आते हैं।।
 कि ये नज़र उसे कोताह लग रही है अब। किसी ग़दर सी मेरी आह लग रही है अब।। वो कह रहा कि मैं सच से मूँद लूँ आंखें मेरी कलम उसे गुमराह लग रही है अब।। कोताह/तंग ग़दर/विद्रोह सुरेश साहनी ,कानपुर
 बढ़े आपदा काल मे अवसर के अतिरेक। खुल्लमखुल्ला कर रहे दवा हवा सब ब्लैक।।साहनी
 भटकने की खातिर सराबें तो लाओ। मैं सो जाऊंगा पर किताबें तो लाओ।। मेरे पांव के खार कम हो न जाएं जरा बेड़ियों की जुराबें तो लाओ।। चला जाऊंगा घर खुदा के भी लेकिन मैं बेहोश हूं कुछ शराबें तो लाओ।। चलो मुझको लेकर के सूली की जानिब मैं हाज़िर हूं हंसकर अजाबें तो लाओ।। बना दो मेरे घर को दोजख चलेगा मगर ज़न्नतों की शराबें तो लाओ।। सराब/मृगतृष्णा खार/कांटा जुराब/मोजा जानिब/तरफ अजाब/काटें दोजख/नर्क जन्नत/ स्वर्ग सुरेश साहनी कानपुर
 यह एक प्रकार का भाव प्रवाह है। इस नज़्म को ग़ज़ल की शक्ल मिल गयी है। लेकिन इसे नज़्म के तौर पर ही पढ़ें। मुझको मुझमें ढूंढ रहे हो पागल हो। किस दुनिया में घूम रहे हो पागल हो।। अपने अपने दिल के अंदर बसते है तुम तो बाहर खोज रहे हो पागल हो।। पलकें मूंदो मैं दिल मे दिख जाऊँगा तुम तो बाहर देख रहे हो पागल हो।। कहते हो संसार तुम्हारा जब मैं हूँ फिर भी मुझसे रूठ रहे हो पागल हो।। तुम न रहोगे क्या तब मैं जी पाऊंगा किसको तनहा छोड़ रहे हो पागल हो।। कैसे मिलना होगा तुमसे ख्वाबों में क्यों रातों में जाग रहे हो पागल हो।। सिवा तुम्हारे कौन है मेरा दुनिया में ये सुरेश से पूछ रहे हो पागल हो।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 अब समन्वयवादियों का चल पड़ा है कारवाँ  एक दिन वह आएगा हम जीत लेंगे ये जहाँ।। हमने सब को साथ लेकर चलने की बातें करीं लोग अकेले भागते थे लेके अपनी गाड़ियां।। जाने कैसे और कितने हाई फाइ लोग थे जो कि हम  पर बन के बौद्धिक सेकते थे रोटियां।। आओ मिलकर काट दें मतभेद की सारी जड़ें और मिटा डालें जो सारे फासले हैं दरमियाँ।।
 सुब्ह उठना कहाँ कमाल हुआ। मुर्ग पहले अगर हलाल हुआ।। क्या  वरक इक लहू से लाल हुआ। उसकी ख़ातिर कहाँ बवाल हुआ।। दिल मुहब्बत का पायेमाल हुआ। हुस्न को कब कोई मलाल हुआ।। हुस्न के चंद दिन उरूज़ के थे क्या हुआ फिर वही जवाल हुआ।। उनसे बरसों बरस उमर पूछी हर बरस सोलवाँ ही साल हुआ।। हासिले-इश्क़  सिर्फ़ ये आया ना मिला रब ना तो विसाल हुआ।। इश्क़ करना गुनाह था गोया जो हके-हुस्न इन्फिसाल हुआ।। साहनी ने सवाल उठाए थे साहनी से ही हर सवाल हुआ।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 ज़िन्दगी झूठ तो नहीं फिर भी झूठ जितनी ही है हसीं फिर भी।। ताब उतना नहीं रहा जबकि  प्यास  बाकी है कुछ कहीं  फिर भी।। दर वो काबा नहीं न काशी था हैफ़ झुकती रही जबीं फिर भी।। उस गली से तो कब के उठ आये रह गया दिल  मग़र वहीं फिर भी।। जबकि उम्मीद आसमां से थी साथ देती गयी ज़मीं फिर भी।। क्या अजब है कि हम भी आशिक थे पर   रहे हुस्न की तईं फिर भी।। ज़िन्दगी खुल के जी गयी जबकि हसरतें हैं कि रह गईं फिर भी।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 पता नहीं क्यों  नहीं पसंद मुझे तुम्हारा यह बिंदास  अंदाज़ तुम्हारा हर किसी से बेबाक होकर बोलना,बतियाना और तुम्हारा स्लीव कट पहन कर  घर के बाहर निकलना या जीन्स पहनना उस लड़की की तरह  जिसे देखकर मेरी आँखों की चमक बढ़  जाती थी जिसका शोख अंदाज मुझे पसंद था और पसन्द था उसका मुस्कुराते हुए हैल्लो कहके मुझसे हाथ मिलाना और मेरे साथ बोलना बतियाना पता नहीं क्यों पसन्द आता था उसका हर वो अंदाज जिसे शरीफ मतलब तथाकथित भले लोग अच्छा नहीं मानते क्या मैं भी हो गया हूँ  तथाकथित भला आदमी  यानि सो कॉल्ड शरीफ .. .... सुरेश साहनी कानपुर
 लोकतंत्र की नींव पर जब जब हुए प्रहार। पत्रकार जन ही हुए सबसे अधिक शिकार।।साहनी जो भी चारण भाट सम करते हैं व्यवहार। पत्रकार बेशक़ बनें पर हैं पत्तलकार।।साहनी
 बेवज़ह के बवाल से निकलो। उस के ख़्वाबो-ख़याल से निकलो।। इश्क़ तो सीरतों पे मरता है हुस्न के  ख़द-ओ-खाल से निकलो।। दिल की दुनिया उजाड़ डालेगी प्यार में एहतिमाल से निकलो।। या तो इन मुश्किलों के हल खोजो या तो हर इक सवाल से निकलो।। इश्क़ में ग़म भी पुरसुकूं होगा बस कि नफ़रत के जाल से निकलो।। सुरेश साहनी ,कानपुर 9451545132
 खुश बेशक़  महफ़िल में रह सकते हो पर यदि आनन्द मिलेगा  तो तन्हाई में।। नाम कमाकर भी वो कैफ़ नहीं मिलता जो  मिलता है आशिक़ को रुसवाई में।।
 आज और कल कन्याओं का पूजन होगा। छोटी छोटी बच्चियों को जिनमें कुछ समर्थ भी होंगी, हम उन्हें हलवा पूरी दही जलेबी खिलाकर उन के पैर धोकर  कन्या पूजन की इतिश्री कर लेंगे। इसके पश्चात वर्ष भर उन कन्याओं में उभरते विकास को देख देख कर उन की स्वच्छन्दताओं पर प्रतिबंध लगाते फिरेंगे। बहुत से लोग उन कन्याओं में उभरती नारी शक्ति के स्थान पर एक पुष्ट होती युवती देख देख अन्य प्रकार की संभावनाएं तलाशते फिरेंगे।   यह वहीं समाज है जहां  "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता"-. जहाँ नारी की पूजा होती है,वहाँ देवताओं का निवास होता है।, का उद्घोष बड़े जोर शोर से किया जाता है किंतु आचरण विपरीत रखा जाता है। क्या हम कुछ आर्थिक रूप से कमजोर कन्याओं के वर्ष पर्यंत शिक्षा और पालन पोषण की जिम्मेदारी लेते हैं? क्या हम उन बच्चियों के पढ़ने लिखने ,खेलने कूदने और यत्र तत्र विचरण के अनुकूल वातावरण बनाने में पहल करते हैं?क्या हम अपने बच्चों को कन्या सम्मान की नैतिक शिक्षा देते हैं?  शायद नहीं।और यदि नहीं तो कन्या पूजन की औपचारिकता बेमानी है। या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्
 और हम इंतजार क्या करते  दिन थे जीवन के चार क्या करते  हुस्न नादान इश्क दीवाना तब भला जानकार क्या करते।। प्यार कैसे हुआ नहीं मालुम जानकर प्यार वार क्या करते।। मौत हर हाल में मुअय्यंन है जिंदगी से करार क्या करते।।
 राह में उम्र भर  रहोगे क्या। तुम यूं ही दरबदर रहोगे क्या।। सबके हासिल हैं कामयाबी है साहनी जी सिफर रहोगे क्या।।
 अब उलझन देता बहुत पाँच हजारी ट्रेंड। निष्क्रिय आईंडीज को क्यों न करें अनफ्रेंड।।साहनी
 कहने को तनहा हूँ मैं। बहुतों का अपना हूँ मैं।। झरने सा गिरता हूँ मैं। बादल बन उठता हूँ मैं।। जीवन भर का सोया मन मरघट में जागा हूँ मैं।। सर्व सुलभ हूँ मैं फिर भी कितनों का सपना हूँ मैं।। उतना नहीं मुकम्मल हूँ जैसा हूँ जितना हूँ मैं।। भीड़ नहीं ये दुनिया है इसका ही हिस्सा हूँ मैं।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 हुस्न ने फिर भी एक घर पाया। इश्क़  लेकिन कहाँ उबर पाया।। उस को दिल ने जिधर जिधर देखा दिल को मैंने उधर उधर पाया।। ज़ुल्फ़ बिखरी सँवर ही जाती है दिल  उजड़ कर न फिर सँवर पाया।। उस ख़ुदा की तलाश आसां थी क्या मैं ख़ुद को तलाश कर पाया।। सब तो हैं कब्रगाह गांवों की आपने क्या कोई शहर पाया।। कर्ज़ हैं वालिदैन के मुझ पर मैं जिन्हें आजतक न भर पाया।। साहनी किस मलाल के चलते चैन से जी सका न मर पाया।। साहनी सुरेश कानपुर 9451545132
 जला है आज फिर बाजार बढ़िया। चलेगा दल का   कारोबार  बढ़िया।। हमारे  वोट    नफरत  से  बढ़ेंगे बताओ किस तरह है प्यार बढ़िया।। बताकर झूठ को सच छाप डाले वही है आजकल अखबार बढ़िया।। दिलों में प्यार बढ़ना ठीक है क्या उठाओ मज़हबी दीवार बढ़िया।। लड़ो लूटो जला डालो दुकानें यही है आज कल रुजगार बढ़िया।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 अश्क़ बेस्वाद हो चुके हैं अब। ग़म भी दिलशाद हो चुके हैं अब।। इश्क़ की इन्तेहाँ से क्या लौटें यूँ भी बरबाद हो चुके हैं अब।। फिर  जगी है तलब गुलामी  की हैफ़ आज़ाद  हो चुके हैं अब।। ले ही आओ हमें सताने के इल्म ईज़ाद हो चुके हैं अब।। झोंक दो मुल्क़ को सियासत में हम भी मुनकाद हो चुके हैं अब।। सुरेश साहनी
 तुम्हारी ज़ुल्फ़ के साये में कैसे शाम कर लेता। मेरी किस्मत सफ़र थी मैं कहाँ आराम कर लेता।।सुरेश साहनी
 चौंक उठता हूँ सिहर जाता हूँ। चलते चलते मैं ठहर जाता हूँ।। तुम नहीं हो तो यही दीवारें काटती हैं जो मैं घर जाता हूं।।  दिन गुज़र जाता है जैसे तैसे रात आँखों में गुज़र जाता हूँ।। जब संवरता  हूँ तेरी बातों से तेरी यादों से बिखर जाता हूँ।। ध्यान है घर से निकलता तो हूँ ये नहीं ध्यान किधर जाता हूँ।। सुरेश साहनी  ,
 मेरी सांसों में तेरी खुशबू हो आ मेरी देह को संदल कर दे। आ के फिर कोई तमन्ना न रहे यूँ मेरा प्यार मुकम्मल कर दे।।सुरेश साहनी
 तोड़ हीरामन अगर तन पींजरा है। जो बचा है वह तो केवल मकबरा है।। हारना है हार ले इक कक्ष अपना तोल पंखों को फुला ले वक्ष अपना देख इस आकाश का क्या दायरा है।। मोह या संकोच में मत पड़ निकल ले चीथड़ों को मुक्ति दे काया बदल ले ब्रम्ह का बाज़ार कपड़ों से भरा है।। है विविध मल मूत्र का आगार यह तन मुग्ध होकर भूल मत हरि से समर्पण और इस जर्जर भवन में क्या धरा है।। सुरेश साहनी ,कानपुर
 शब्द प्रकृति है शब्द विष्णु है शब्द ब्रम्ह है पर सीमित है यह अपनी क्षमताओं से भी भावों परिभाषाओं से भी इनसे भी पहले अक्षर है अक्षर ही किंचित ईश्वर है ईश्वर भी तो निराकार है अक्षर से स्वर हैं व्यंजन हैं स्वर ऊर्जा है व्यन्जन  द्रव्य है  दोनो की युति शिव शक्ति है शिव शक्ति ही परम ब्रम्ह है परमब्रह्म ही स्वयम सृष्टि है स्वयम सृष्टि के चरणों से ही अगणित धारायें निकली हैं धाराओं के पंथ आज हम धर्म समझ कर भृमित दिशा ले धाराओं में बह जाते हैं और स्वयम को श्रेष्ठ समझ कर जाने क्या क्या कह जाते हैं हमें समझना होगा यह हम केवल कवि हैं ब्रम्ह नहीं हैं हमसे भी पहले अक्षर थे हम न रहेंगे, अक्षर होंगे.... सुरेश साहनी
 ये महज़ दर्द की तर्जुमानी नहीं। रंज़ोग़म ही ग़ज़ल के मआनी नहीं।। इतनी रोशन जबीं है  ग़ज़ल दोस्तों नूर का इसके कोई भी सानी नहीं।। इसकी तारीख़ है खूबसूरत बहुत आंसुओं से भरी ये  कहानी नहीं।। मौत को ज़िन्दगी में बदलती है ये राह देती है ये बदगुमानी नहीं।। खूबसूरत है इसकी ठहर चाल सब है हवा में भी ऐसी रवानी नहीं।। ये ज़मीं पर जुबां है ज़मीं की तो क्या आसमानी से कम आसमानी नहीं।।  मीर संजर ओ ग़ालिब सभी ने कहा ये महज़ साहनी की जुबानी नहीं।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 ख़्वाब जागे टूटने की हद तलक। हम भी सोये जागने की हद तलक।। मेरे हरजाई में कुछ तो बात थी याद आया भूलने की हद तलक।। यकबयक जाना क़यामत ही तो है रूठते पर रूठने की हद तलक।। प्यार को अन्जाम देना था मुझे बात डाली ब्याहने की हद  तलक।। अक्स दर्दे-दिल के उभरे ही नहीं हमने देखा आइने की हद तलक।। सुरेश साहनी  कानपुर 9451545132
 पूछती है ये ज़िन्दगी अब भी। क्या तुझे चाह है मेरी अब भी।। झोलियों भर दिए हैं ग़म तुझको क्या तुझे है कोई कमी अब भी।। सूख कर दिल हुआ कोई सहरा सिर्फ़ आंखों में है नमी अब भी।। हैफ़ मेरे ही साथ रहता है कोई तुम जैसा अजनबी अब भी।। ढूंढ़ता है तुम्हें ये आइनां दिल की आदत नहीं गयी अब भी।। अब भी यादों के ज़ख़्म देते हो इसमें  मिलती है क्या खुशी अब भी।। तुम गये तो चली गयी कविता यूँ तो लिखता है साहनी अब भी।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
 सब कहते हैं सुख ढकने को  मैंने दर्द उधार लिया है। जबकि पीड़ाओं ने खुद को दब कर और उभार लिया है।। उसे खुशी देने की ख़ातिर खुद को कुछ इस कदर छला है मेरे हिस्से का सूरज भी  उसके हिस्से में निकला है कह सकते हो मैंने निज पद खुद कुठार पर मार लिया है।। साथ चली कुछ दिन छाया सी फिर बदली बन मुझे ढक लिया मेरा बन कर अपनाया फिर मुझको मुझसे अलग कर दिया मेरे निश्छल मन ने हँस कर यह छल भी स्वीकार लिया है।। चाँद जला है सर के ऊपर सूरज ने छायाएं दी हैं सूखे दृग रहकर सहरा ने उस को जल धाराएं दी हैं उसने कब एहसान किये हैं मैंने कब उपकार लिया है।। जीत जीत कर गही पराजय हार हार कर मालायित तुम मैं हूँ नित्य हलाहल पाई अमृत घट के लालायित तुम मैं हूँ जन्म मरण से ऊपर घट घट गरल उतार लिया है।।
 बड़ा सवाल है फिर भी कोई सवाल नहीं। मलाल जिसके लिए है उसे मलाल नहीं।। मैं जिसका हर घड़ी इतना ख़याल रखता हूँ अजीब बात है उसको मेरा ख़याल नहीं।। बवाले-जान को लेकर भी कुछ बवाल नहीं।।
 आज एहसास को हम भूल गए हैं शायद अपने हर खास को हम भूल गए हैं शायद आज बच्चों को नहीं याद हैं सम्राट अशोक अपने इतिहास को हम भूल गए हैं शायद।।
 एक अपूर्ण ग़ज़ल थे उल्फ़त के मारे हम। दिल के हाथों हारे हम।। फ़ितरत के ध्रुव तारे हम। किस्मत से बंजारे हम।। सूरज चन्दा तारे हम। अम्मा के थे सारे हम।। तब जितने थे न्यारे हम। अब उतने बेचारे हम।। गंगा जल से प्यारे हम। आज हुए क्यों खारे हम।। घर के राजदुलारे हम। जाते किसके द्वारे हम।। उल्फ़त के उजियारे हम। फिर भी रहे अन्हारे हम।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 समस्या और गहरी हो गयी है सदन गोया कचहरी हो गयी है।। कि बेमानी है अब आवाज देना तो क्या सरकार बहरी हो गयी है।।साहनी
 ख़ुशनुमा दिन न रात कुछ भी नहीं। कैसे कह दें कि बात कुछ भी नहीं मेरे  दम से बने वज़ीर  मेरी कह रहे हैं बिसात कुछ भी नहीं।।साहनी
 ख़ास जैसा कमाल करता है। आम रहकर सवाल करता है।। साफ मुजरिम है जो अंधेरों में सह के रोशन मशाल करता है।।
 हम थे गोया खुली किताब कोई ग़म है उसने नहीं पढ़ा मुझको।।साहनी
 कभी देखा नज़र भरकर उसे जो तुम्हारे ग़म में दोहरा हो रहा है।।साहनी
 अँधियारे करने लगे राजपथों पर मार्च। किन हाथों में पड़ गयी संविधान की टॉर्च।।साहनी
 जबकि घर जैसा घर नहीं लगता। फिर सफ़र भी सफ़र  नहीं लगता।। जंग इक ज़िन्दगी से क्या लड़ ली अब किसी  से भी डर नहीं लगता।। उसने देखा अजीब नज़रों से क्या मैं सचमुच बशर नहीं लगता।। कोई दैरोहरम हुआ गोया मयकदा सच मे घर नहीं लगता।। हुस्न तेरा लिहाज़ है वरना इस ज़माने से डर नहीं लगता।। इस जगह लोग प्यार करते हैं ये कहीं से शहर नहीं लगता।। ऐंठ कर इश्क़ साहनी इसमें कोई ज़ेरोज़बर नहीं लगता।। सुरेश साहनी कानपुर 9451545132
माँ अब याद नहीं आती है... दुनिया के जंजाल घनेरे नून तेल लकड़ी के फेरे हर अपने की अपनी ख्वाहिश रिश्तों की धन से पैमाइश किनसे नफा किधर हैं घाटे किनको जोड़े किसको काटे कैसे निकलें मकड़ जाल से इतनी गणित नहीं आती है..... कल कवि सम्मेलन में माँ पर कविता एक सुनी थी सस्वर
 किसके ग़म से अपना दिल आबाद करें। वक़्त कहाँ फरियादों में बर्बाद करें।। गए वक़्त की रानाई को याद करें। बेहतर होगा क़ुरबत के पल याद करें।। कभी न चाहेंगे हम दिल की दिल्ली का कोई फैसला कोई फैसलाबाद करे।।
 वक़्त को बेरहम नहीं कहते। हर किसी को सनम नहीं कहते।। आशिक़ी में भरम तो होते हैं आशिकी को भरम नहीं कहते।। क्या हुआ कुछ हमें बताओगे ज़ख्म दिल के सितम नहीं कहते।। मुस्कुरा कर नज़र झुका लेना यार इसको रहम नहीं कहते।। वो मसीहा है इस ज़माने का सब को कहने दो हम नहीं कहते।। आपके ग़म हैं इश्क़ के हासिल और हासिल को ग़म नहीं कहते।। सुरेश साहनी, कानपुर
 क्या मिटा सकेगी क़ज़ा मुझे। कोई दे रहा है दुआ मुझे।। वो मेरे रक़ीब के साथ है जो सिखा रहा था वफ़ा मुझे।। मैं हूँ आंधियों में पला बढ़ा क्या बुझा सकेगी हवा मुझे।।
 इस ग़ज़ल पर आपकी नज़रे-इनायत चाहूंगा। समाअत फरमायें। ******* कितना रोयें हम कितनी फरियाद करें। हद होती है दिल कितना नाशाद करें।। कोई भंवरा जाता है तो जाने दो हम दिल का गुलशन क्यों कर बर्बाद करें।। उन्हें उरीयाँ होने में जब उज़्र नहीं  हम बापर्दा जलसे क्यों मुनकाद करें।। चाँद सितारों के पीछे क्यों भागे हम क्यों ना ख़ुद में ही तारा इज़ाद करें।। एक गया तो और कई आ जाएंगे उनसे प्यार मुहब्बत ईद मिलाद करें।। कौन किसी की ख़ातिर रोता है ऐसी ख़्वाब ख़्याली से ख़ुद को आज़ाद करें।। दिल का मरकज़ हम दिल्ली ही रक्खेंगे क्यूँ दिल को लाहौर फैसलाबाद करें।। सुरेश साहनी, कानपुर उरीयाँ / अनावृत उज़्र/ आपत्ति मुनकाद/आयोजन मरकज़/ केंद्र इज़ाद/ खोज
 हैं वो गलियां वही ठिकाने सब। काश मिलते किसी बहाने सब।। तुम भी होते तो महफिलें सजती यार मिलते नये पुराने सब।। साथ देने को कौन कब आया सिर्फ़ आये थे आज़माने सब।। होश आया तो मयकदे लौटे होके बेख़ुद थे आशियाने सब।। ये नज़र ये जिगर दिलो-जां भी हुस्न वालों के हैं ठिकाने सब।। सुरेश साहनी, कानपुर 9451545132
 जिनको खामोशी से मिलना था वही चीख पड़े! हादसा जैसा रहा उनसे अचानक मिलना।। साहनी