इस ग़ज़ल पर आपकी नज़रे-इनायत चाहूंगा। समाअत फरमायें।

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कितना रोयें हम कितनी फरियाद करें।

हद होती है दिल कितना नाशाद करें।।

कोई भंवरा जाता है तो जाने दो

हम दिल का गुलशन क्यों कर बर्बाद करें।।

उन्हें उरीयाँ होने में जब उज़्र नहीं 

हम बापर्दा जलसे क्यों मुनकाद करें।।

चाँद सितारों के पीछे क्यों भागे हम

क्यों ना ख़ुद में ही तारा इज़ाद करें।।

एक गया तो और कई आ जाएंगे

उनसे प्यार मुहब्बत ईद मिलाद करें।।

कौन किसी की ख़ातिर रोता है ऐसी

ख़्वाब ख़्याली से ख़ुद को आज़ाद करें।।

दिल का मरकज़ हम दिल्ली ही रक्खेंगे

क्यूँ दिल को लाहौर फैसलाबाद करें।।

सुरेश साहनी, कानपुर


उरीयाँ / अनावृत

उज़्र/ आपत्ति

मुनकाद/आयोजन

मरकज़/ केंद्र

इज़ाद/ खोज

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