कितनी मशक्कतें रहीं कितने भरम रहे।

हर रोज ज़िन्दगी से उलझते ही हम रहे।।


हर सांस उसके नाम पे आई गयी मगर

उसके ख़्याल में ज़हाँ के जेरो-बम  रहे।।


जब भी वफ़ा की बात चली वो सम्हल गया

वो चाहता  था वो ही वफ़ा का सनम रहे।।


वो चाहता है हमको ज़माने के गम मिले

हम चाहते हैं एक उसी का ही गम रहे।।


अब तुम भी छोड़ दो ये अदाएं ये हरकतें

वो उम्र न रही न वो दर्दो-अलम रहे।।

सुरेश साहनी, कानपुर

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