सब कहते हैं सुख ढकने को
मैंने दर्द उधार लिया है।
जबकि पीड़ाओं ने खुद को
दब कर और उभार लिया है।।
उसे खुशी देने की ख़ातिर
खुद को कुछ इस कदर छला है
मेरे हिस्से का सूरज भी
उसके हिस्से में निकला है
कह सकते हो मैंने निज पद
खुद कुठार पर मार लिया है।।
साथ चली कुछ दिन छाया सी
फिर बदली बन मुझे ढक लिया
मेरा बन कर अपनाया फिर
मुझको मुझसे अलग कर दिया
मेरे निश्छल मन ने हँस कर
यह छल भी स्वीकार लिया है।।
चाँद जला है सर के ऊपर
सूरज ने छायाएं दी हैं
सूखे दृग रहकर सहरा ने
उस को जल धाराएं दी हैं
उसने कब एहसान किये हैं
मैंने कब उपकार लिया है।।
जीत जीत कर गही पराजय
हार हार कर मालायित तुम
मैं हूँ नित्य हलाहल पाई
अमृत घट के लालायित तुम
मैं हूँ जन्म मरण से ऊपर
घट घट गरल उतार लिया है।।
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