तुम्हें जो ज़ीस्त के अंदाज़ दे रहा था मैं।
तुम्हारा कल ही तुम्हें आज दे रहा था मैं।।
हमारे बीच की सब दूरियाँ सिमट जाएं
कुछ हमख्याल से मेराज दे रहा था मैं।।
तुम्हारे हुस्न की अंज़ामे बेहतरी के लिए
हमारे इश्क़ को आगाज़ दे रहा था मैं ।।
तमन्ना है कि तुम्हें ले चलूँ बुलंदी पर
इसी ख़याल को परवाज़ दे रहा था मैं।।
वो तुमने समझा कि बादे-सबा सी गुज़री है
ख़ुदा कसम तुम्हें आवाज़ दे रहा था मैं।।
सुरेश साहनी, कानपुर
Comments
Post a Comment