माँ अब याद नहीं आती है...
दुनिया के जंजाल घनेरे
नून तेल लकड़ी के फेरे
हर अपने की अपनी ख्वाहिश
रिश्तों की धन से पैमाइश
किनसे नफा किधर हैं घाटे
किनको जोड़े किसको काटे
कैसे निकलें मकड़ जाल से
इतनी गणित नहीं आती है.....
कल कवि सम्मेलन में माँ पर
कविता एक सुनी थी सस्वर
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