अश्क़ बेस्वाद हो चुके हैं अब।

ग़म भी दिलशाद हो चुके हैं अब।।

इश्क़ की इन्तेहाँ से क्या लौटें

यूँ भी बरबाद हो चुके हैं अब।।

फिर  जगी है तलब गुलामी  की

हैफ़ आज़ाद  हो चुके हैं अब।।

ले ही आओ हमें सताने के

इल्म ईज़ाद हो चुके हैं अब।।

झोंक दो मुल्क़ को सियासत में

हम भी मुनकाद हो चुके हैं अब।।


सुरेश साहनी

Comments

Popular posts from this blog

भोजपुरी लोकगीत --गायक-मुहम्मद खलील

र: गोपालप्रसाद व्यास » साली क्या है रसगुल्ला है