हम मौसम के साथ मचलना भूल गए।
गिरने की है होड़ सम्हलना भूल गये।।
अखबारों ने ऐसी बर्फ़ बिछा डाली
नई उमर के खून उबलना भूल गए।।
मज़लूमों की जात देखकर जाने क्यों
कैंडल वाले मार्च निकलना भूल गए।।
देख सियासतदानों की ऐयारी को,
गिरगिट अपना रंग बदलना भूल गए।।
अब मोबाइल गिरने का डर रहता है
खुश होकर बिंदास उछलना भूल गए।।
सुरेश साहनी
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