यूँ तो तमाम ज़ख्म थे पाले नहीं गए।
जाने क्यों उनकी याद के छाले नहीं गए।।
इतने गिरे वो गिर गए ख़ुद की निगाह से
शायद वफ़ा के बोझ सम्हाले नहीं गए।।
क्या करते आसमान में ख़ुद ही सुराख थे
सो हमसे इंकलाब उछाले नहीं गये।।
जब भी चली अवाम के हक़ में क़लम चली
शाहों के दर पर ले के रिसाले नहीं गये।।
कितने सहाफ़ियों की ज़ुबाँ सर कलम हुये
पर ख़ौफ़ से सवाल तो टाले नहीं गये।।
है फ़ख्र हमने यार के कूचे में जान दी
ये आबरू रही के निकाले नहीं गए।।
सुरेश साहनी,अदीब , कानपुर
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