अब मजदूरों पर दया नहीं आती।
आज ये मजबूर हैं वरना ये
ख़ुद को मजदूर कहने में शर्माते हैं
इनसे पूछो ये अपनों से
कैसे पेश आते हैं
ये इनके हक़ की बात कहने वालों से दूरी बनाते हैं
ये किसी मजदूर को वोट तक नहीं देते
नहीं पढ़ते ये ऐसे घोषणा पत्र
जिसमें सिर्फ इनकी बात लिखी हो
ये पैसे लेकर रैलियों में जाते हैं
लुभावने वादों पर तालियां बजाते हैं
और तो और ये मजदूर हैं यह बात भूल जाते हैं
और औक़ात भूलकर बाभन चमार
या हिन्दू मुसलमान हो जाते हैं
एक बोतल और हजार पाँच सौ के एवज में
अपना वोट ईमान सब बेच आते हैं
काश इन्हें पता होता कि ये
हजार पाँच रुपये के मोहताज नहीं
ये इस देश के पाँच सौ लाख करोड़ की अर्थव्यवस्था के मालिक हैं
तब ये भी अपना वोट
लक्जरी कार मालिक की बजाय
किसी मजदुर को दे रहे होते।
सुरेश साहनी कानपुर
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