है मेरी ज़ीस्त में बशर कोई।

जैसे साहिल पे दीपघर कोई।।


एक मुद्दत से मुन्तज़िर है दिल

कब से आया नहीं इधर कोई।।


आशना होगा मुझसे वो वरना

क्यों झुकाकर गया नज़र कोई।।


मंजिलें तक सवाल करती हैं

अब भी बाकी है क्या सफर कोई।।


जब उबरता हूँ मैं तभी दिल में

बैठ जाता है फिर से डर कोई।।


आदमी हूँ गए ज़माने का

जैसे वीरान खंडहर कोई।।


ज़िन्दगी धूप से मुतास्सिर थी

किसलिए ढूंढ़ते शज़र कोई।।


मुझको अपनों के गाँव जाना था

उसकी आँखों मे था शहर कोई।।


साहनी तुम कहो कि क्यों तेरी

आज लेता नहीं ख़बर कोई।।


सुरेश साहनी, कानपुर।

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