कि मैं शरीके-गुनाह कब था।

बताओ वो बेगुनाह कब था।।

वो कब न था दाग़दार यारों

हमारा दामन सियाह कब था।।

जो सबकी ग़ुरबत बता रहा है

वो खुद भी आलमपनाह कब था।।

 बसा रहा था हमारे दिल को

हमारा दिल पर तबाह कब था।।

वो हमपे तोहमत लगा रहा है

कहे तो वो मेरी राह कब था।।

सुरेश साहनी, कानपुर

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