चलो गाँव की ओर चल पड़ो।
शहरों में हर चीज बिके है
पानी तक निर्मूल्य नहीं है
हर सेवा की कीमत है बस
मानवता का मूल्य नहीं है
उठो सुनो अपने अन्तस् की
बिना मचाये शोर चल पड़ो।।
कैसे बना बनाया हमने
छोड़ दिया सरमाया हमने
जितना यहां कमाया हमने
उसे अधिक लुटाया हमने
रात चरम पर है कुछ ठहरो
होते होते भोर चल पड़ो।।....
कभी भटकते हो दिल्ली में
कभी मुंबई में मरते हो
कलकत्ता बंगलोर चेन्नई
कहाँ नहीं जिल्लत सहते हो
अपने घर इंसान रहोगे
यहां बने हो ढोर चल पड़ो।।.....
किसी लॉकडाउन से बेहतर
गांवों की मर्यादाएं हैं
हर घर से निश्छल रिश्ते हैं
बन्धु सखा हैं माताएं हैं
बहन बेटियों सहज भाभियों
की आशा के डोर चल पड़ो।।....
वहीं गांव से दूर कहीं उस
तट पर दो पथराई आंखें
तुझसे मिल पाने को उद्यत
उड़ती है लेकर मन पाँखें
उसी प्रतीक्षारत राधा के
मन के नन्दकिशोर चल पड़ो।।.....
सुरेश साहनी, कानपुर
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