रोशनी में बढ़े पले फिर भी।

शाम होते ही हम ढले फिर भी।।


था पुकारा ज़मीर ने बेशक

दीप बन कर न हम जले फिर भी।।


तीरगी ने बचा दिया अक्सर

रोशनी से गए छले फिर भी।।


आप अपनों से टूट जाते हैं

लाख रखते हों हौसले फिर भी।।


कौन बचता है इश्क में फंसकर

हाथ कितना कोई मले फिर भी।।


फिर बिठा लें भले तुम्हें दिल में

मिट न पाएंगे फासले फिर भी।।


ख़ुद को बेशक ख़ुदा करार करे

है बशर आसमा तले फिर भी।।


सुरेश साहनी, कानपुर

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