कानपुर में इस समय एक अजीब तरह का माहौल है।ऐसा कोई समय नहीं जब लुटेरे अपनी सेवाएं न देते हों।अखबार लूट और राहजनी की ख़बरों से भरे रहते हैं।और हमारे रक्षक उन अख़बारों में अपनी नींद तलाशते रहते हैं।सड़क पर ,गली कूचों में ग्रांड प्रिंक्स को मात देते बाइक सवार इस रोमांचक एहसास को बनाये रखते हैं।बेरोजगारों को जैसे रोजगार का एक विकल्प मिल गया है।तमंचा लगाये बेख़ौफ़ घूमते इन रहजनों ने उन पतियों को काफी राहत दी है ,जो पत्नी की महंगी फरमाइशों से परेशान रहते थे।स्वर्ण उद्योग को जरूर कुछ दिक्कत हो सकती है।लेकिन शस्त्र निर्माण के कुटीर उद्योग बढ़ रहे हैं यह शुभसंकेत है।ऐसा लगता है कि कुछ दिनों में हम पेशावर और रावलपिंडी को इस उद्योग में पीछे छोड़ देंगे।बड़े बूढ़े स्त्री पुरुष सब समान रूप से लूटे जा रहे हैं।ये सही मायने में एक तरह का समाजवाद है।
भोजपुरी लोकगीत --गायक-मुहम्मद खलील
अमवा के बारी में बोले रे कोयिलिया ,आ बनवा में नाचेला मोर| पापी पपिहरा रे पियवा पुकारे,पियवा गईले कवने ओर निरमोहिया रे, छलकल गगरिया मोर निरमोहिया रे, छलकल गगरिया मोर||........... छलकल .... सुगवा के ठोरवा के सुगनी निहारे,सुगवा सुगिनिया के ठोर, बिरही चकोरवा चंदनिया निहारे, चनवा गईले कवने ओर निरमोहिया रे, . छलकल .... नाचेला जे मोरवा ता मोरनी निहारे जोड़ीके सनेहिया के डोर, गरजे बदरवा ता लरजेला मनवा भीजी जाला अंखिया के कोर निरमोहिया रे, . छलकल .... घरवा में खोजलीं,दलनवा में खोजलीं ,खोजलीं सिवनवा के ओर , खेत-खरिहनवा रे कुल्ही खोज भयिलीं, पियवा गईले कवने ओर निरमोहिया रे, छलकल ....
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