गुनगुनाती हुई ग़ज़ल थी वो।

आशिक़ी का मेरी बदल थी वो।।

अपनी दुनिया का शाह था कल मैं 

हाँ मेरे प्यार का महल थी वो।।

मेरे ख्वाबों में कल दिखी थी मुझे

अब भी वैसी है जैसी कल थी वो।।

याद आते हैं दिन वो कालिज के

मेरी नज़रों को जब सहल थी वो।।

ज़िंदगी से तवील थे आलम

जब मुहब्बत के चंद पल थी वो।।

जैसे दुनिया थी मेरी मुट्ठी में

मेरी तक़दीर का रमल थी वो।।

धूप में इक गुलाब थी गोया

चांदनी में खिला कँवल थी वो।।

इतनी पाकीज़गी थी उस शय में

जैसे गंगानदी का जल थी वो।।

आज हम उलझनों के मानी हैं

और इन उलझनों का हल थी वो।।


सुरेश साहनी, कानपुर।

9451545132

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