क्या कोई युगचित्र उकेरे

दृष्टिहीन  हो गए  चितेरे

जातिधर्म की ज्वालाओं ने 

फूंक दिये सब प्रेम बसेरे


कितनी नफ़रत कितनी कुंठा

अपना ही अपनों से रूठा

कोई कहता है अपना लो

कोई कहता छू मत ले रे।।


युगदृष्टा सब रहे ध्यानरत

हुए आक्रमण यहां अनवरत

भारत माता रही चीखती

कहाँ गए सब नाहर मेरे।।


उच्च बड़े मंझले छोटू हैं

कई तरह के तो हिन्दू हैं

फिर सिख मुस्लिम और ईसाई

सबके अलग अलग हैं डेरे।।


सुरेश साहनी, कानपुर

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