कविता लिखो ना
मुझे विश्वास है
तुम और मैं कविता नहीं लिख सकते
क्योंकि कविता तो वह भाव है
जो शब्दों के ढेर से परे भी प्रवाहित होता है
कविता आकाश की नीरवता से उतरकर
बादलों पर तैरती हुई हौले हौले
राजहंसों की तरह मंडराते हुए
धरती की गोद मे आ बैठती है
किसी पहाड़ के हृदय से द्रवित ग्लेशियर
जब मदालसा स्त्री की तरह
अंगड़ाई लेकर आगे बढ़ता है
तो किसी झरने से झम्म से नीचे गिरने का भय
उसके स्त्रीत्व को पुनः जगा देता है
और वह झर झर झरती हुई
नदी में बदल जाता है
यह कविता प्रकृति ने लिखी है
दूर तक फैले आसमान पर उड़ते बादल
रोज कविता लिखते हैं
उन्हें पढ़ने चाँद,सूरज, ढेर सारे तारे
और पंछी सब आते हैं
लेकिन अब कविता पहाड़ों से उतरकर
जंगलों से गुजर रही है
इन पंछियों के कलरव , जंगल मे गूंजती आवाजें और नदी की कल कल
यह सब कविता है ना !
नदी कल कल बहते हुए
गांवों कस्बों से गुज़र रही थी
अब वो कल कल नहीं करती
शायद शहरों के समीप आने का भय
कविता को सता रहा है
कविता का गला सूखने लगा है
हाँ शहरों में कविता सम्पादित होती है
उसे सुन्दर सुन्दर नहरों की शक्ल मिलेगी
और कविता शायद न रहे कविता।
वस्तुतः कविता वह अनगढ़ देहाती सौंदर्य है
जिसके समक्ष
शहरों की पाश्चात्य संस्कृति से अभिभूत
सौंदर्य प्रसाधन सम्पन्न आत्ममुग्धाएँ
कविता नहीं शब्दों का संयोजन मात्र होती हैं
जब कुछ ऐसा लिख लेना तब बताना
मैं ज़रूर सुनूंगा तुम्हारी कविता.....
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