मौसम पर एक ग़ज़ल समाअत फरमायें:-
आज फिर दर्द से धूप दोहरी रही ।
दूर सीवान पर सांझ ठहरी रही ।।
रात भी देर तक अनमनी सी रही
भोर अंगनायियों में दुपहरी रही।।
सुब्ह सूरज सुनहरा सुनहरा मिला
दिन जली तो रूपहरी रूपहरी रही।।
आज मौसम भी कुछ अनसुना सा रहा
कुछ हवाओं की फितरत भी जहरी रही।।
कोई पल्ला न घूंघट न आँचल कोई
अप्सराओं की हर सू कचहरी रही।।
हर कोई स्वेद से था नहाया हुआ
छाँह बरगद भी लू की मसहरी रही।।
सुरेश साहनी, अदीब
कानपुर
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