अगर मैं उर्दू या हिंदी का  जानकार होता तो मैं नज़र को नज्र और शहर को शह्र  ज़रूर लिखता अथवा घोर अरबी फारसी और घनघोर संस्कृत अथवा प्राकृत के शब्द ठूंसता। 

मुला मैं ठहरा भोजपुरी कनपुरिया। सो भाषा के मामले में कबीर से दू कदम आगे ही समझिए। मुझे आज भी रामलरायन महतो चाचा कि याद आ जाती है। एक बार वे लेट हो गए। पूछने पर उन्होंने बताया कि ," का बतावल जा साहब ! हम त डिपुटी टाइमें से आ रहे थे कि रस्ता में ओंहर से एगो छोकड़ी आ रही था।बस ऊ आके मारिये नू दिया। फिर उन्होंने इतने आराम से बताना चालू किया कि अधिकारी महोदय ठीक है ठीक है कहते हुए निकल लिए। "

 उनकी इस गंवई मिश्रित बोली में जो लालित्य ,जो प्रवाह और ठहराव या लयात्मकता नजर आती थी उसे कागज पर उतारना शायद रेणु या प्रेमचंद के ही बस की बात होगी। भाषा के पंडित , वर्तनी और उच्चारण में मीनमेख निकालने वाले उर्दू के अलंबरदार लोग भाषा की सहजता को अंगीकार कर केशवदास तो हो सकते हैं तुलसी और कबीर नहीं ।

  ऐसे में एक और संकट है।एक तो मैं लोहा लंगड़ वाला मजूर और उस पर गूगल इनपुट पर टाइपिंग में दिक्कतें। लिखो कुछ लिख जाता है कुछ।सो आधे अक्षर वाले अल्फाज और नुक्ता आदि वाले शब्द लिखने में दिक्कतें  आ रहीं हैं।लेकिन इससे नुक्ताचीनी वालों को लिखने के लिए पर्याप्त मसाला मिल रहा है यह सुखद है।

   और मैं भी अपने आप को भाषाई एकेडमी का सो  कॉल्ड एलिट नहीं समझता ना ही ऐसी कोई अभिलाषा है। हां जो मेरे जानने या न जानने वाला आम आदमी या जनसाधारण की पंचायत में स्वीकार्यता मिले इस का पक्षधर जरूर हूं।और जन संसद में बैठने के लिए हमें बशीर नामवर या अजीत कुमार राय की तरह नफीस और क्लिष्ट होने की अनिवार्यता नहीं महसूस होती।

Comments

Popular posts from this blog

भोजपुरी लोकगीत --गायक-मुहम्मद खलील

र: गोपालप्रसाद व्यास » साली क्या है रसगुल्ला है