देश के बड़े बड़े लाभ वाले सार्वजनिक उपक्रम बिक रहे हैं। कई अघोषित रूप में पहले ही निजी हाथों में सौंपे जा चुके हैं।ठीक भी हैं।जब ये लगाए गए थे तब देश के पास संसाधन नहीं थे। कुल पौने दो सौ करोड़ की पूंजी थी।देश को अंग्रेज जाते जाते खाली कर गए थे। देश के युवाओं को  रोजगार की जरूरत थी। नए उद्योग लगाए गए। देश को बिजली ,इस्पात ,सीमेंट और तमाम सारे आधारभूत ढांचों के क्षेत्र में आत्मनिर्भर होना था।तब किया भी गया।

  आज देश को रोजगार की ज़रूरत नहीं है। आज रोटी,कपड़ा और मकान बुनियादी ज़रूरतें नहीं हैं। आज देश का हर युवा अपनी अपनी जाति और धर्म की टोपी या टीशर्ट पहन कर एक उन्माद लिए घूम रहा है।आज उसकी शाम एक बोतल बियर और चंद उन्मादी नारों से मुक़म्मल हो जाती है।

  आज किसान तो थोड़ा बहुत जूझ रहा है।किंतु उनकी नई पीढ़ी गेंहू-धान उगाना नहीं चाहती। उसे मालूम है कि अब गांव के चौराहे पर भी पिज्जा बर्गर, नूडल्स और मोम्मोज मिल रहा है।दूध की जगह पेप्सी मिल रही है।ऐसे में अनाज उगाने की जहमत कौन उठाएगा।आखिर रोटी नहीं तो ब्रेड खाने की सलाह देने वाले नेता तो हमने ही चुने हैं।

  फिर समाजवाद भी तो ब्रांडेड समाजवाद हो गया है। जब एसी कमरों में ब्रांडेड शराब और कबाब के साथ चार करोड़पति गरीबी को हटाने की चर्चा कर रहे होते हैं ,तो इसका मतलब होता है कि जल्द ही कोई झोंपडपट्टी उजड़कर मेगा माल या शॉपिंग कॉम्प्लेक्स की शक्ल लेने वाली है।

अतः चुपचाप जो हो रहा है होने दो। डार्विन ने कहा है, survival of the fittest.  जो फिट है वह जीयेगा।जैसे डायनासोर नहीं रहे,यह भारी भरकम उद्योग भी नहीं रहेंगे।आखिर  सरकार रोजगार देने की जिम्मेदारी क्यों ले।आपको रोजगार चाहिए पकौड़े की दुकान लगाइए। सरकार कह रही है और सही भी है।देश की जनता और सारे बेरोजगार उनके साथ हैं।

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