मेरा लिखा हुआ पढ़ पढ़कर 

जाने कितने चुकवि बन गये।

मैं रह गया महज एक जुगनू

वे तारा शशि रवि बन गये।।

निश्चित यह मेरा प्रलाप है

इसे दम्भ भी कह सकते हो

मन की कुंठा,हीनग्रंथि या 

उपालम्भ भी कह सकते हो

पर यह सच है मन मलीन ही

छवि भवनों में सुछवि बन गए।।

मेरा लिखा हुआ पढ़ पढ़कर .......

इधर उधर से नोच नाच कर

कविता पूरी कर लेते हैं

दिन दहाड़े शब्द चुरेश्वर

रचना चोरी कर लेते हैं

वे याजक बन गए सहजतः

हम समिधा घृत हवि बन गये।।

मेरा लिखा हुआ पढ़ पढ़कर .......

सुरेशसाहनी, कानपुर

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