यहां के संगो -दर बदले हुए हैं।
सभी ठैरो - ठहर बदले हुए हैं।।
जुबानें क्यों नहीं बदलेंगी उनकी
परिंदों ने शजर बदले हुए हैं ।।
नज़र वाले नज़र बदले तो बदलें
यहां अंधे नज़र बदले हुए हैं।।
कि नफ़रत आज भी है नफरतों सी
मुहब्बत के असर बदले हुए हैं।।
हमारे जिस्म अब भी है वहीं पर
फकत रूहों ने घर बदले हुए हैं।।
बताओ किस लिए गैरों में बैठें
भले अपनों के स्वर बदले हुए हैं।।
वही मंज़िल वही हैं रास्ते भी
मगर अहले -सफर बदले हुए हैं।।
सुरेश साहनी कानपुर
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