शाम भी ढलने लगी है
दीप भी जलने लगे हैं।
स्वप्न आशा के थकी 
पलकों तले पलने लगे हैं।।

मन सुलझना चाहता है
नींद के पहले चरण में
उलझनें इस ज़िद पे हैं यह-
रात बीते जागरण में

तन ठहरना चाहता है
आसरे छलने लगे है।।

उम्र ने आधी सदी को
दान कर दी ज़िन्दगानी
फिर नियति क्यों चाहती है
हसरतों की मेजबानी

मृत्यु के संकेत आंखें
भोर से मलने लगे हैं।।

एक बिस्तर नींद लेकर
देह गिरना चाहती है
पर थकन इस देहरी पर
ही ठहरना चाहती है

चिर प्रतिक्षित वेदनाओं
के नयन खुलने लगे हैं।।

सुरेशसाहनी, कानपुर

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