धर्मग्रंथों में लिखी बातें अंतिम सत्य भी नहीं होती। भारतीय दर्शन और संस्कृति विचार विमर्श टीकाओं और शास्त्रार्थ को मान्यता देता है। यहां तर्क को ज्ञान और ज्ञान को विज्ञान की कुंजी माना गया है। हमारे उपनिषद इसके श्रेष्ठतम उदाहरण हैं। हमारे यहां सनातन काल से सगुण निर्गुण, निराकार और साकार, आत्मा और ब्रह्म, एकेश्वर और बहुदेव ,आस्तिक और नास्तिक , ईश्वर और अनीश्वर ,शैव और वैष्णव  सगुण में भी तमाम सारे पंथ और निर्गुण में परमात्मा को स्त्री और परम पुरुष मानने वाले , तथा ब्राम्हण और शाक्त, आदि अनेक पंथ साथ साथ रहते आए है। यहां अंधास्था और वैज्ञानिक दोनों को सम्मान मिला है। बौद्ध जैन कबीर पंथी, सिख और पश्चिम अक्षेपन के रूप में यहूदी इस्लाम पारसी आदि के अस्तित्व को भी यहां सहजता से लिया जाता रहा है। अर्थात भारत   आदिकाल से शांतिपूर्ण सह अस्तित्व को स्वीकारता चला आ रहा है।यदि आज बहुसंख्यक समुदाय उद्वेलित है तो अल्पसंख्यकों को उनकी भावनाओं को समझना चाहिए।हमें देखना होगा कि आखिर वे कौन लोग हैं जो स्वयं को धर्म का अधिपति या खुदमुख्तार बनाने की चेष्टा में पूरे समाज को ज़हालत और हिंसा के रास्ते पर चलाना चाहते हैं। क्योंकि अल्लाह या ईश्वर और राम या मुहम्मद कभी खतरे में नहीं आने वाले ।यदि खतरा है तो सिर्फ सियासतबाज  धर्म और मजहब के नेताओं को है। हिंदुत्व तो स्वयं आह्वान करता है कि -

 ' आयांतू सर्वे पुत्रा ये पृथ्वीव्या: पश्यंतु देवम भितो भ्राजमानम

अमृतम ज्योतिर्यद दिवोSतित्य तिष्ठत दहरेSसम्वृतम संचकास्ति।।"

 अर्थात पृथ्वी के सभी पुत्र यहां आए और परम ज्योति अर्थात ज्ञान के आलोक का दर्शन करें जिससे सकल ब्रम्हांड आलोकित है  वह ज्योति तीनों लोकों से परे  बिना किसी आवरण के जगमग जगमग झलक रही हैं यहां विराजमान है।.........

आइए हम भारत को ऐसा ही समरस भारत बनने में मदद करें जो सतत सहिष्णु है।

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