संस्मरण

 मेरे संयुक्त परिवार में मेरे सातवें नंबर के बाबा जी घर में सर्वाधिक परिश्रमी माने जाते थे।वे जितने परिश्रमी थे उससे कहीं अधिक आत्मीय भी थे। गर्मी की छुट्टियों में जब हम गांव जाते तो मेरा सर्वाधिक समय उनके पास ही बीतता था। अक्सर वे मुझे खेत जाते समय साथ ले जाते थे।तब हमारे यहां हल बैलों का उपयोग  खेती के प्राथमिक कार्यों में बहुतायत से होता था। यद्यपि मैं खेती के मामले में अनाड़ी ही रहा। बाबा सिखाने का प्रयास करते थे।  गांव जाते समय कस्बे यानी  अढ़ाई कोस दूर से गांव तक का सफर लढिया या डल्लफ (भोजपुरी में बैलगाड़ी के प्रचलित नाम) पर करना होता था।और कस्बे से गांव तक लाने का कार्य बाबा ही करते थे। 

 बाबा का प्रिय भोजन रंगून का चावल और ताजी मछली था। इसके लिए वे नित्य शाम को शिकार करने निकलते थे। क्या बार मछली नहीं मिलने के कारण देर भी हो जाती थी। पर  चाहे रात के बारह बज जाएं वे खाली नहीं लौटते थे।मेरी एक चाची जो अब भी हैं जो उतनी रात को भी इस विश्वास के साथ मसाला पीस कर तैयार रखती थीं कि बाबा कभी खाली हाथ घर नहीं लौटते हैं। और बाबा के आने पर उन्हें सुरुचि से भोचन पका कर देती थीं। यद्यपि देर रात भोजन बनने के कारण हम लोग अपने नए घर में भोजन करके सो चुके होते थे, फिर भी ये बाबा जगाकर साथ में भोजन करते कराते थे।

   आम के दिनों में ये अपने हाथों सिरका तैयार करते और इस प्रक्रिया में दिन दिन भर लगे रहते थे। और जब आठ दस दिन बाद तैयार सिरका घर में सभी के हिस्से में बांट देते थे।

 बाबा की एक और आदत थी। वे जब भी कभी संध्या को घर लौटते थे तो घर के आगे घारी ( गौशाला )के पास हाथ की लाठी पटक देते थे। पालतू कुत्ते आराम की मुद्रा से उठकर  भागते और घर की बहुएं समझ जाती थीं कि छोटे मलिकार आ गए। और उनकी संध्या पंचायत से उठ कर घर में भाग जाती थीं।

    एक समय वह भी आया धीरे धीरे साझा चूल्हे बंटने लगे । और घर की अधिकतर खेती मुकदमों की भेंट चढ़ चुकी थी। घाट पर पुल बनने से गांव के घाट से आय भी जाती रही थी। उस समय तक मैं सरकारी नौकरी ज्वाइन कर चुका था। साल में एक दो बार गांव अब भी आना जाना हो जाता था। 

   ऐसे ही एक बार मेरा गांव जाना हुआ। इस समय सात भाईयों में बाबा के चार भाई पहले परलोक जा चुके थे। बाबा भी वृद्ध  हो चुके थे। गांव में घर से घाट और घाट से घर मेरी दिनचर्या थी। एक बार घाट से घर की ओर लौटते समय बाबा भी साथ थे।वे अब धीरे चलते थे। मैंने भी धीरे चलते हुए बाबा से उनकी अशक्तता के बारे में पूछा।बातचीत के दौरान ही बाबा ने अनुनय की मुद्रा में मुझसे कहा," ए बाबू!अब देहिया बड़ा बत्थेला। तूं मलेटरी में हवS।तुहार उमर बढ़े। तनी एक बोतल के इंतजाम करि देतS।;

 परंतु मेरे ऊपर आदर्श का भूत सवार रहता था।मैने कहा कि तूं साल भर घाटे पे चाह पीयS । हम पैसा दे देब। बाकि शराब करतिन हम एक पैसा नाही देब। " 

बाबा मेरा मुंह देखते रहे।मुझे बाबा की चिरौरी खराब लगी थी।

  अगले दिन मैं अपनी ड्यूटी पर लौट आया।करीब तीन महीने बाद मुझे सूचना मिली कि बाबा नहीं रहे। मुझे बेहद आघात सा लगा था। मुझे उनकी याचना स्मरण हो आयो। और मैं आत्मग्लानि से भर गया। काश! मैने उनकी वह इच्छा पूरी कर दी होती।

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