आज के कान्वेंट स्कूलों में बच्चों के ऊपर पाठ्यक्रम लादा जा रहा है।छोटे छोटे बच्चे रीढ़ और कन्धों की बीमारी से ग्रसित हो रहे हैं।यह कौन सी वैज्ञानिक शिक्षा पद्धति है, जिसमे बच्चों को आँख के चश्मे लग रहे हैं।बच्चों की रोग प्रतिरोधक क्षमता घट रही है।यह कौन सी शिक्षा पद्धति है जिसमें बच्चों को सुबह शाम अपना बचपन जीने का मौका नही मिल रहा है।आखिर बच्चों को पर्याप्त नींद सोने और खेलने का समय क्यों नही मिल रहा है।बच्चों के बस्ते का वजन निर्धारित क्यों नही हो रहा है।सरकारी स्कूलों में अनुशासन का पाठ पढ़ाने वाली सरकारें इन कान्वेंट स्कूलों की मनमानी पर मौन क्यों हैं।भारी भरकम फीस लेने के बावजूद बच्चों पर कोचिंग का अतिरिक्त भार पड़ रहा है।इन स्कूलों की फीस,किताब कापियों की संख्या,पाठ्यक्रम,दिनचर्या अवधि, नैतिक शिक्षा और खेलों की अनिवार्यता पर गम्भीरता से ध्यान देने की आवश्यकता है।मैं माननीय प्रधानमंत्री जी और मानव संसाधन मंत्री जी से आग्रह करता हूँ कि इस सम्बन्ध में एक उच्चस्तरीय जाँच समिति बनाकर अपने स्तर से बच्चों को त्रासदी पूर्ण जीवन चर्या से मुक्ति दिलाएं और उन्हें उनका वह बचपन प्रदान करें जैसा भरत जैसे बालक को प्राप्त था।
भोजपुरी लोकगीत --गायक-मुहम्मद खलील
अमवा के बारी में बोले रे कोयिलिया ,आ बनवा में नाचेला मोर| पापी पपिहरा रे पियवा पुकारे,पियवा गईले कवने ओर निरमोहिया रे, छलकल गगरिया मोर निरमोहिया रे, छलकल गगरिया मोर||........... छलकल .... सुगवा के ठोरवा के सुगनी निहारे,सुगवा सुगिनिया के ठोर, बिरही चकोरवा चंदनिया निहारे, चनवा गईले कवने ओर निरमोहिया रे, . छलकल .... नाचेला जे मोरवा ता मोरनी निहारे जोड़ीके सनेहिया के डोर, गरजे बदरवा ता लरजेला मनवा भीजी जाला अंखिया के कोर निरमोहिया रे, . छलकल .... घरवा में खोजलीं,दलनवा में खोजलीं ,खोजलीं सिवनवा के ओर , खेत-खरिहनवा रे कुल्ही खोज भयिलीं, पियवा गईले कवने ओर निरमोहिया रे, छलकल ....
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