रात इस सीने पे पत्थर सी रही।
हर सुबह ख़ाली मुकद्दर सी रही।।
दिन रहे हैं इन्तेज़ारों कि तरह
साँझ भी भटके मुसाफ़िर सी रही।।
ना मरहले हैं न मंज़िल न मुक़ाम
ज़िन्दगी जैसे मुहाज़िर सी रही।।
हम सिकन्दर की तरह भागा किये
हासिलत पर एक फ़ाकिर सी रही।।
ज़िन्दगी की कैफ़ियत ही दर्द थी
मौत राहतखेज़ मंज़र सी रही।।
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