हमारे पास इक छोटा सा घर है।

यही दुनिया हमारी मुख्तसर है।। 

हमें मालूम हैं अपनी हदें भी

कहाँ हम हैं कहाँ सारा शहर है।।

मसीहा है हमारी नज़्र में वो

हमारे दर्द से जो बेख़बर है।।

किसे अपना कहें किसको पराया

यहां हर एक रिश्ता पुरख़तर है।।

घरौंदा प्यार का बनता कहाँ से

मुहब्बत ही अज़ल से दरबदर है।।

के जीना चाहते हो साथ किसके

वो जो भी है बड़ी क़ातिल नज़र है।।

Suresh Sahani कानपुर

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