कुछ इतने ज़ेर-ओ-बम हो गए हैं।

बहुत कमज़ोर से हम हो गए हैं।।

तुम्हारा ग़म है यह भी नीम सच है

अगरचे चश्म कुछ नम हो गए हैं।।

ये बासन्ती बयारों का असर है

पुराने ज़ख्म मरहम हो गए हैं।।

रियाज़ों में रवानी है मुसलसल

मेरे नाले भी सरगम हो गए हैं।।

मेरे आंसू तुम्हारे सर्द रुख से

लरज कर आज शबनम हो गए हैं।।

उधर आये हो तुम होकर रक़ीबां

इधर हम और बेदम हो गए हैं।।

तेरे बाज़ार में क्या कुछ नहीं है

फ़क़त इंसान कुछ कम हो गए हैं।।

              -सुरेश साहनी

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