हमको लहरों का मचलना भा गया।

उस समंदर का उबलना भा गया।।


हांफना तूफान का अच्छा लगा

इक शिकारे का सम्हलना भा गया।।


कोई बिस्मिल क्यों कहेगा इश्क़ में

तीर का दिल से निकलना भा गया।।


हर तरफ गुल के दरीचे बिछ गए

बाग को उनका टहलना भा गया।।


चाँद का दीदार ही मकसूद था

दफ़्फ़तन राहों में मिलना भा गया।।


फिर तलातुम से मुहब्बत हो गयी

बल्लियों दिल का उछलना भा गया।।


जिस्म बाहों में सुलगते रह गया

चाँद का ख़ामोश जलना भा गया।।


सुरेश साहनी, कानपुर

9451545132

Comments

Popular posts from this blog

भोजपुरी लोकगीत --गायक-मुहम्मद खलील

श्री योगेश छिब्बर की कविता -अम्मा

र: गोपालप्रसाद व्यास » साली क्या है रसगुल्ला है