नियति ने रंग कुछ ऐसे समेटे भी बिखेरे भी।
सुनहली धूप से दिन भी कभी बादल घनेरे भी।।
कभी भर नींद हम सोये
सजीले ख़्वाब भी देखे
कभी भर रात हम जगे
कभी खुद में रहे खोये
हमारी पटकथा के हम ही नायक थे चितेरे भी।।
हमें अपना पता कब था
हमे पहचान उसने दी
बनाकर वो बिगाड़ेगी
हमें किसने कहा कब था
अभी तो एक लगते हैं उजाले भी अँधेरे भी।।
इसे तकदीर कहते हैं
ये बनती है बिगड़ती है
लकीरों से न बन पायी
तेरी तस्वीर कहते हैं
उभरती है इन आँखों में जो  सन्ध्या भी सबेरे भी।।

Comments

Popular posts from this blog

भोजपुरी लोकगीत --गायक-मुहम्मद खलील

र: गोपालप्रसाद व्यास » साली क्या है रसगुल्ला है

श्री योगेश छिब्बर की कविता -अम्मा