भारत में वैश्विक आर्थिक मंदी बेअसर क्यों.

अभी हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने एक रिपोर्ट में कहा की वैश्विक मंदी का असर भारत पर इसीलिए नहीं हुआ,क्योंकि भारत की बैंकिंग व्यवस्था का बड़ा हिस्सा इन्टरनेट से नहीं जुड़ा था|कम से कम अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने मनमोहन को अप्रत्यक्ष रूप से सराहा|यद्यपि मैं इससे कतई सहमत नहीं हूँ|भारत की अर्थव्यवस्था वस्तुतः जटिल अर्थ व्यवस्था है|या यूँ कहे भारत एक मात्र ऐसा देश है ,जहाँ विनिमय और व्यापार क
े सभी स्वरुप प्रचलित हैं|यह ऐसा देश है जहाँ सरकारी,अर्ध सरकारी ,सहकारी,सार्वजनिक और निजी सभी प्रकार की व्यवस्थाएं एक साथ चल रही हैं|सभी सरकारी संस्थाओं में आउटसोर्सिंग के जरिये निजी क्षेत्र सक्रिय है|और सभी निजी क्षेत्र सरकारी ऋणों और अनुदान पर चल रहे हैं|सब्सिडी निजी क्षेत्र को उपकृत करने का ही एक माध्यम है|सभी चलते संस्थान घाटे में लाकर निजी हाथों में बेचे जाते हैं, और सभी निजी संस्थाओं के घाटे में जाने पर सरकार टेक ओवर करती है,ऋण माफ़ करती है,बेल आउट जारी करती है| इस प्रकार यहाँ राष्ट्रीयकरण और निजीकरण एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है| लेकिन मेरा मूल उद्देश्य उन बिन्दुओं को खोजना था की भारत में वैश्विक आर्थिक मंदी का असर क्यों नहीं पड़ा|मेरी गणित कमजोर है|या यूँ कहें जो टीवी पर अर्थशास्त्री आते हैं,उस तुलना में अज्ञानी हूँ |लेकिन कुछ चीजें कोई मूढ़ भी बता सकता है|जैसे भारत में 80 %जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करती है| भारत में 5% से कम लोग देश की अधिकतम सम्पदा के मालिक हैं|भारत में शेयर और कारपोरेट सेक्टर से जुड़े लोग बमुश्किल 1.5% भी नहीं हैं|और यही लोग हैंजिन पर आर्थिक मंदी का प्रभाव पड़ सकता था|यानि 98 .5 % जनसंख्या आर्थिक मंदी की मारक सीमा में नहीं थी | इसके अतिरिक्त भारत में शहरी,कस्बाई और ग्रामीण तीन स्तरीय जीवन है| शहरों में मुद्रा-विनिमय और गावों में आवश्यक वस्तु विनिमय पद्धति प्रचलित है|कस्बों में दोनों पद्धतियाँ प्रचलित है|यह भी एक बड़ा कारण था|इन सब से बड़ा एक फैक्टर था भारत में प्राचीन कल से प्रचलित माइक्रो इकनोमिक सिस्टम यानि सूक्ष्म आर्थिक व्यवस्था|हमारे देश में लोग अपनी मूलभूत आवश्यकताओं को प्राथमिकता में रखते हैं|इसके अतिरिक्त अर्जित धन से सम्यक जीवनयापन ,के पश्चात् दान-पुन्य और लघु बचत संस्कार में शामिल है|इस व्यवस्था में एक मुखिया परिवार का भरण-पोषण करने के उपरांत अतिथि,याजक,याचक और साधू सन्यासियों को भी देखता था|किसी गाँव में अनजान व्यक्ति को भी अतिथि भाव से भोजन करने की परंपरा रही है|यद्यपि शहरों में इसके विपरीत ही दीखता है|शहरों में उपभोगवाद हावी है|मेरा तात्पर्य और मूल सूत्र यह की आधुनिक लोन आधारित विराट अर्थ व्यवस्था की बजाय ग्रामीण आवश्यक वस्तु-विनिमय और सूक्ष्म आर्थिक व्यवस्था ने ही आर्थिक मंदी की मार से भारत को बचा कर रखा|

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