सहर हुई कि दियों का सफ़र भी ख़त्म हुआ।

इसी के साथ अंधेरों का डर भी ख़त्म हुआ।।


कि नफरतों की नई बस्तियों के बसने से

मुहब्बतों का पुराना शहर भी ख़त्म हुआ।।


वो अजनबी में भी इंसान देखने वाला

शहर का तेरे यही इक हुनर भी  ख़त्म हुआ।।


विरासतों को मेरी मुझ से जोड़ता था जो

पुराने घर का वो बूढ़ा शज़र भी ख़त्म हुआ।।


बसे हैं जानवर इन पत्थरों के जंगल में

जहाँ गया मैं समझ लो बशर भी ख़त्म हुआ।।


सुरेश साहनी, कानपुर

9451545132

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