साँकल साँकल दी आवाज़ें
बन्द मिले सारे दरवाजे
किसको फुर्सत थी जो सुनता
सारे थे राजे महाराजे।।
बना रहा यौवन का प्रहरी
साँझ सबेरे दिन दोपहरी
कमल करों हित वन वन भटका
ज्यूँ श्रम - स्वेदासिक्त गिलहरी
किसे सुनाई दे पुकार जब
सब सुनते हैं गाजे बाजे।।
तुम पर जादू चढ़ा हुआ था
अपने रूप रंग यौवन का
मैं भी पागल था जो समझा
तुमको ही अभीष्ट जीवन का
देर हुयी तब निद्रा टूटी
तब तक थी हो चुकी पराजय।।
किन्तु योग हठ प्रिय हूँ मैं भी
अलख निरंजन की यह दीक्षा
निर्विकार मन से पुकारना
कैसे नहीं मिलेगी भिक्षा
सांकल पिघलेगी माया की
खोलेगी दिल के दरवाजे।।.....
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