ज़ख्म जो भर चुके उधड़ते हैं।

ज़िन्दगी जब भी तुझको पढ़ते हैं।।


तब खयालों में तू नहीं होता

जब भी तस्वीर तेरी गढ़ते हैं।।


कुछ सहम जाता है समन्दर भी

सू-ए-गिर्दाब हम जो बढ़ते हैं।।


ये कलेजा है इश्क़ वालों का

मुस्कुरा कर सलीब चढ़ते हैं।।


हुस्न वालों को क्या अदा ठहरी

तोहमतें इश्क़ पर ही मढ़ते हैं।।


ज़हमतें दी हैं जिंदगानी ने

मौत से ख्वामख्वाह लड़ते हैं।।


उनके ख़्वाबों के हम मुसव्विर थे

जिनकी नज़रों को आज गड़ते हैं।।


सुरेश साहनी, कानपुर

9451545132

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