यूँ तो लबों पे ज़ाम मचलते रहे मगर।

हम थे कि बार बार सम्हलते रहे मगर।।

तौबा के बाद उनसे कहाँ वास्ता रहा

उनकी गली से रोज़ निकलते रहे मगर।।

मैंने तो क़द का ज़िक्र कहीं भी नहीं किया

बौने तमाम उम्र उछलते रहे मगर।।

सहरा में अपनी प्यास ने झुकने नहीं दिया

चश्मे शराब ले के उबलते रहे मगर।।

मक़तल के  इर्द गिर्द  बिना एहतियात के

शहादत का शौक लेके टहलते रहे मगर।।

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