कुछ भी दीजै मगर  इल्ज़ाम-ए-जफ़ा  मत दीजै।

टूट कर चाहने की ऐसी सज़ा  मत     दीजै।।


आप चाहे कहीं रह लें किसी के साथ रहें

पर मेरी पाक मुहब्बत को शुबा  मत दीजै।।


मेरी हर नफ़्स सनम अब भी दुआ ही देगी

आप बेशक़ मेरे जीने की दुआ  मत दीजै।।


अपनी चाहत कोई तशहीर का सामान नहीं 

इसको अखबार का उनवान बना मत दीजे।।


उठ न पाऊँ कभी मैं अपनी नज़र से ज़ालिम

अपनी नज़रों से मुझे इतना गिरा  मत दीजै।।


सुरेश साहनी,कानपुर

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