पार तट पर दिखी बावरी प्रीत की।
नाव पर बज उठी बाँसुरी प्रीत की।।
प्रीत पनघट पे गागर छलकती रही
नेह आँचल सम्हलती ढुलकती रही
भर उठी भाव से गागरी प्रीत की।।
मेरे मांझी मुझे पार तो ले चलो
स्वर उठा मैं गयी हार प्रिय ले चलो
ओढ़ कर चल पड़ी चूनरी प्रीत की।।
जब तलक तेरे हाथों में पतवार है
डोलना डगमगाना भी स्वीकार है
ला पिला दे मुझे मदभरी प्रीत की।।
इस तरह बेसहारे सहारे हुए
दो किनारे मिले एक धारे हुए
नेह तरु पर चढ़ी वल्लरी प्रीत की।।
सुरेश साहनी, कानपुर
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