फिर तेरे ख्वाब नज़र आये हैं।
फिर कई ज़ख़्म उभर आये हैं।।
शाखो-गुल झूम उठे हैं फिर से
फिर मुहब्बत के समर आये हैं।।
यां उसी रोज़ से आयी है बहार
आप जिस रोज़ से घर आये हैं।।
हसरतें अब न करेंगी बेज़ार
उनके हम पंख कतर आये हैं।।
आज मक़तल में दिखी है रौनक
आज हम होके उधर आये हैं।।
सुरेश साहनी, कानपुर
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