तुमने सीमायें तय कर दी
देहरी दीवारें घर आंगन
बंधक यौवन के बदले में
मैंने खोया मेरा बचपन
खेल खिलौने गुड्डे गुड़िया
घोंघे सीपी कंकड़ पत्थर
ना कुछ पाने का हवशीपन
ना कुछ खो जाने का था डर
कैसे कह दूं उस सावन से
यह सावन है बेहतर सावन
यह खिड़की भर का सावन है
वह था मुक्त गगन का सावन
संग संघाती थे हम जैसे
राहें थीं जानी पहचानी
पगडंडी बतियाने वाली
गांव गली अपनी रजधानी
कैसे कह दे उस जीवन से
कैसे बेहतर है यह जीवन
तब थी दसो दिशाएं अपनी
अब पिंजरशुक जितना नर्तन
सुरेशसाहनी, कानपुर
(अवध बिहारी श्रीवास्तव जी से प्रेरित)
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