उस समय देहरादून में रोबिन शॉ "पुष्प, विद्यासागर नौटियाल गिरिजा शंकर त्रिवेदी विजय गौड़ और ओम प्रकाश वाल्मीकि की गिनती वहां के प्रतिष्ठित साहित्यकारों में होती थी।ओमप्रकाश वाल्मीकि जी हमारी निर्माणी में होने के कारण आसानी से सुलभ थे।नई निर्माणी होने के कारण अधिकारी/कर्मचारी अधिकतर युवा ही थे।इनमें नई ऊर्जा से भरे नवोदित कवि भी शामिल थे।बहुत सारी युवा लड़कियां भी हमारी निर्माणी का हिस्सा थीं।निर्माणी में जैसे विश्वविद्यालय का आभास होता था।ऐसे में कई शौकिया कवि भी इस गिनती में शामिल होना चाहते थे।उनदिनों वाल्मीकि जी और अनिल कुमार सिंह जी जो अब कानपुर में हैं ,पूरी तन्मयता से हिंदी की सेवा में लगे थे।लगभग सभी रचनाकार इन दोनों महानुभावों को अपनी रचनायें दिखाकर मुतमईन होना चाहते थे।हमारे एक साथी कवि कुछ अधीर या अतिउत्साही कवि थे।उनकी रचनाधर्मिता जबरदस्त थी।वे दस बजे एक कविता ग्यारह बजे तक दूसरी कविता और ग्यारह बज के बीस मिनट की द्रुत गति से बीस पच्चीस बार लिख लेते थे। और वाल्मीकि जी को दिखाने पहुंच जाते थे।
ऐसे ही एक दिन वाल्मिकी जी अपने एक वरिष्ठ अधिकारी के साथ एक उत्पादन अनुभाग में पहुँचे हुए थे।संयोग वश उसी अनुभाग में हमारे साथ अधीर कवि जी भी नियुक्त थे। खैर!वाल्मीकि जी विनम्र व्यक्तित्व थे।वे हम लोगों से आकर मिले ।हालचाल लिया और आगे बढ़ गए।तब तक अधीर जी के अंदर का कवि जाग गया।उन्होंने आगे बढकर वाल्मीकि जी को रोक कर कहा,
- अरे सर!मैंने एक रहस्यवादी कविता लिखी है। इसे देख लीजिए।
वाल्मीकि जी शीघ्रता में थे।चलते हुए सरसरी निगाह से पढ़ा और कहा,
- भाई ! समझ में नहीं आयी।"
मित्र ने उसी रौ में उत्तर दिया , यही तो रहस्यवाद है। और हो हो हंसते हुए एक पान मुंह मे डाल लिया था।
Comments
Post a Comment