दमदार ग़ज़लगो है क़ता ढूंढ़ रहा है।
किस दौर में वो अहले वफ़ा ढूंढ़ रहा है।।
तहज़ीबो-तमद्दुन जहाँ लाचार पड़े हैं
इस दौर में वो शर्मो-हया ढूंढ़ रहा है।।
उम्मीद को बुझने नही देती है यही बात
वो स्याह अंधेरों में शमा ढूंढ़ रहा है।।
वो मुल्क में बीमारी-ए-नफ़रत का पसरना
वो मर्ज़ की जड़ और दवा ढूंढ़ रहा है।।
दामन है तारतार गरीबी की वजह से
अब मीडिया उसमे भी मज़ा ढूंढ़ रहा है।।
क्यों अपनी बहन देख के होटल में खफ़ा है
गर अपने लिए जिस्म नया ढूंढ़ रहा है।।
शायद कि किसी काम तेरे आ सके #अदीब
क्या है जो तू औरों से सिवा ढूंढ़ रहा है।।
-- सुरेशससाहनी 'अदीब"
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