तीरगी छा गई है बस्ती में।

नूर है किसकी सरपरस्ती में।।


लोग कुछ मयक़दे नहीं आये

आग लगनी है किसकी  मस्ती में।।


एक दरवेश जो शहनशा है

कितनी हस्ती है एक हस्ती में।।


पास कुछ भी नहीं है खोने को

सिर्फ़ मस्ती है तंगदस्ती में।।


आप से इश्क़ माफ करिएगा

हम हैं मशरूफ़ घर गिरस्ती में।।


सुरेश साहनी, कानपुर

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